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इब्रानियों
Chapter 1
पुत्र का स्वभाव
1पूर्व युग में परमेश्वर ने पूर्वजों से थोड़ा-थोड़ा करके और भाँति-भाँति से भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा बातें की,2पर इन अन्तिम दिनों में हम से पुत्र के द्वारा बातें की, जिसे उसने सारी वस्तुओं का वारिस ठहराया और उसी के द्वारा उसने सारी सृष्टि भी रची है। (1 कुरि. 8:6, यूह. 1:3)3वह उसकी महिमा का प्रकाश, और उसके तत्व की छाप है, और सब वस्तुओं को अपनी सामर्थ्य के वचन से संभालता है: वह पापों को धोकर ऊँचे स्थानों पर महामहिमन् के दाहिने जा बैठा।4और स्वर्गदूतों से उतना ही उत्तम ठहरा*, जितना उसने उनसे बड़े पद का वारिस होकर उत्तम नाम पाया।यीशु स्वर्गदूतों से श्रेष्ठ
5क्योंकि स्वर्गदूतों में से उसने कब किसी से कहा,“तू मेरा पुत्र है;
आज मैं ही ने तुझे जन्माया है?”
और फिर यह,
“मैं उसका पिता हूँगा,
और वह मेरा पुत्र होगा?” (2 शमू. 7:14, 1 इति. 17:13, भज. 2:7)
6और जब पहलौठे को जगत में फिर लाता है, तो कहता है, “परमेश्वर के सब स्वर्गदूत उसे दण्डवत् करें।” (व्य. 32:43, 1 पत. 3:22)7और स्वर्गदूतों के विषय में यह कहता है,“वह अपने दूतों को पवन,
और अपने सेवकों को धधकती आग बनाता है।” (भज. 104:4)
8परन्तु पुत्र के विषय में कहता है,“हे परमेश्वर, तेरा सिंहासन युगानुयुग रहेगा,
तेरे राज्य का राजदण्ड न्याय का राजदण्ड है।
9तूने धार्मिकता से प्रेम और अधर्म से बैर रखा;इस कारण परमेश्वर, तेरे परमेश्वर, ने
तेरे साथियों से बढ़कर हर्षरूपी तेल से तुझे अभिषेक किया।” (भज. 45:7)
10और यह कि, “हे प्रभु, आदि में तूने पृथ्वी की नींव डाली,और स्वर्ग तेरे हाथों की कारीगरी है। (भज. 102:25, उत्प. 1:1)
11वे तो नाश हो जाएँगे*; परन्तु तू बना रहेगा औरवे सब वस्त्र के समान पुराने हो जाएँगे।
12और तू उन्हें चादर के समान लपेटेगा,और वे वस्त्र के समान बदल जाएँगे:
पर तू वही है
और तेरे वर्षों का अन्त न होगा।” (इब्रा. 13:8, भज. 102:25-26)
13और स्वर्गदूतों में से उसने किस से कभी कहा,“तू मेरे दाहिने बैठ,
जब तक कि मैं तेरे बैरियों को तेरे पाँवों के नीचे की चौकी न कर दूँ?” (मत्ती 22:44, भज. 110:1)
14क्या वे सब परमेश्वर की सेवा टहल करनेवाली आत्माएँ नहीं; जो उद्धार पानेवालों के लिये सेवा करने को भेजी जाती हैं? (भज. 103:20-21)Chapter 2
उद्धार की उपेक्षा के विरुद्ध चेतावनी
1इस कारण चाहिए, कि हम उन बातों पर जो हमने सुनी हैं अधिक ध्यान दे, ऐसा न हो कि बहक कर उनसे दूर चले जाएँ।2क्योंकि जो वचन स्वर्गदूतों के द्वारा कहा गया था, जब वह स्थिर रहा और हर एक अपराध और आज्ञा न मानने का ठीक-ठीक बदला मिला।3तो हम लोग ऐसे बड़े उद्धार से उपेक्षा करके कैसे बच सकते हैं*? जिसकी चर्चा पहले-पहल प्रभु के द्वारा हुई, और सुननेवालों के द्वारा हमें निश्चय हुआ।4और साथ ही परमेश्वर भी अपनी इच्छा के अनुसार चिन्हों, और अद्भुत कामों, और नाना प्रकार के सामर्थ्य के कामों, और पवित्र आत्मा के वरदानों के बाँटने के द्वारा इसकी गवाही देता रहा।5उसने उस आनेवाले जगत को जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं, स्वर्गदूतों के अधीन न किया।6वरन् किसी ने कहीं, यह गवाही दी है,“मनुष्य क्या हैं, कि तू उसकी सुधि लेता है?
या मनुष्य का पुत्र क्या है, कि तू उस पर दृष्टि करता है?
7तूने उसे स्वर्गदूतों से कुछ ही कम किया*;तूने उस पर महिमा और आदर का मुकुट रखा और उसे अपने हाथों के कामों पर अधिकार दिया।
8तूने सब कुछ उसके पाँवों के नीचे कर दिया।”इसलिए जब कि उसने सब कुछ उसके अधीन कर दिया, तो उसने कुछ भी रख न छोड़ा, जो उसके अधीन न हो। पर हम अब तक सब कुछ उसके अधीन नहीं देखते। (भज. 8:6, 1 कुरि. 15:27)
9पर हम यीशु को जो स्वर्गदूतों से कुछ ही कम किया गया था, मृत्यु का दुःख उठाने के कारण महिमा और आदर का मुकुट पहने हुए देखते हैं; ताकि परमेश्वर के अनुग्रह से वह हर एक मनुष्य के लिये मृत्यु का स्वाद चखे।10क्योंकि जिसके लिये सब कुछ है, और जिसके द्वारा सब कुछ है, उसे यही अच्छा लगा कि जब वह बहुत से पुत्रों को महिमा में पहुँचाए, तो उनके उद्धार के कर्ता को दुःख उठाने के द्वारा सिद्ध करे।11क्योंकि पवित्र करनेवाला और जो पवित्र किए जाते हैं, सब एक ही मूल से हैं, अर्थात् परमेश्वर, इसी कारण वह उन्हें भाई कहने से नहीं लजाता।12पर वह कहता है,“मैं तेरा नाम अपने भाइयों को सुनाऊँगा,
सभा के बीच में मैं तेरा भजन गाऊँगा।” (भज. 22:22)
13और फिर यह,“मैं उस पर भरोसा रखूँगा।”
और फिर यह,
“देख, मैं उन बच्चों सहित जिसे परमेश्वर ने मुझे दिए।” (यशा. 8:17-18, यशा. 12:2)
14इसलिए जब कि बच्चे माँस और लहू के भागी हैं, तो वह आप भी उनके समान उनका सहभागी हो गया; ताकि मृत्यु के द्वारा उसे जिसे मृत्यु पर शक्ति मिली थी*, अर्थात् शैतान को निकम्मा कर दे, (रोम. 8:3, कुलु. 2:15)15और जितने मृत्यु के भय के मारे जीवन भर दासत्व में फँसे थे, उन्हें छुड़ा ले।16क्योंकि वह तो स्वर्गदूतों को नहीं वरन् अब्राहम के वंश को संभालता है। (गला. 3:29, यशा. 41:8-10)17इस कारण उसको चाहिए था, कि सब बातों में अपने भाइयों के समान बने; जिससे वह उन बातों में जो परमेश्वर से सम्बन्ध रखती हैं, एक दयालु और विश्वासयोग्य महायाजक बने ताकि लोगों के पापों के लिये प्रायश्चित करे।18क्योंकि जब उसने परीक्षा की दशा में दुःख उठाया, तो वह उनकी भी सहायता कर सकता है, जिनकी परीक्षा होती है।Chapter 3
मूसा विश्वासयोग्य दास: मसीह विश्वासयोग्य पुत्र
1इसलिए, हे पवित्र भाइयों, तुम जो स्वर्गीय बुलाहट में भागी हो, उस प्रेरित और महायाजक यीशु पर जिसे हम अंगीकार करते हैं ध्यान करो।2जो अपने नियुक्त करनेवाले के लिये विश्वासयोग्य था, जैसा मूसा भी परमेश्वर के सारे घर में था।3क्योंकि यीशु मूसा से इतना बढ़कर महिमा के योग्य समझा गया है, जितना कि घर बनानेवाला घर से बढ़कर आदर रखता है।4क्योंकि हर एक घर का कोई न कोई बनानेवाला होता है, पर जिस ने सब कुछ बनाया वह परमेश्वर है*।5मूसा तो परमेश्वर के सारे घर में सेवक के समान विश्वासयोग्य रहा, कि जिन बातों का वर्णन होनेवाला था, उनकी गवाही दे। (गिन. 12:7)6पर मसीह पुत्र के समान परमेश्वर के घर का अधिकारी है*, और उसका घर हम हैं, यदि हम साहस पर, और अपनी आशा के गर्व पर अन्त तक दृढ़ता से स्थिर रहें।अविश्वास के प्रति चेतावनी
7इसलिए जैसा पवित्र आत्मा कहता है,“यदि आज तुम उसका शब्द सुनो,
8तो अपने मन को कठोर न करो,जैसा कि क्रोध दिलाने के समय और
परीक्षा के दिन जंगल में किया था। (निर्ग. 17:7, गिन. 20:2-5,13)
9जहाँ तुम्हारे पूर्वजों ने मुझे जाँच कर परखाऔर चालीस वर्ष तक मेरे काम देखे।
10इस कारण मैं उस समय के लोगों से क्रोधित रहा,और कहा, ‘इनके मन सदा भटकते रहते हैं,
और इन्होंने मेरे मार्गों को नहीं पहचाना।’
11तब मैंने क्रोध में आकर शपथ खाई,‘वे मेरे विश्राम में प्रवेश करने न पाएँगे’।” (गिन. 14:21-23, व्य. 1:34-35)
12हे भाइयों, चौकस रहो, कि तुम में ऐसा बुरा और अविश्वासी मन न हो, जो जीविते परमेश्वर से दूर हटा ले जाए।13वरन् जिस दिन तक आज का दिन कहा जाता है, हर दिन एक दूसरे को समझाते रहो, ऐसा न हो, कि तुम में से कोई जन पाप के छल में आकर कठोर हो जाए।14क्योंकि हम मसीह के भागीदार हुए हैं*, यदि हम अपने प्रथम भरोसे पर अन्त तक दृढ़ता से स्थिर रहें।15जैसा कहा जाता है,“यदि आज तुम उसका शब्द सुनो,
तो अपने मनों को कठोर न करो, जैसा कि क्रोध दिलाने के समय किया था।”
16भला किन लोगों ने सुनकर भी क्रोध दिलाया? क्या उन सब ने नहीं जो मूसा के द्वारा मिस्र से निकले थे?17और वह चालीस वर्ष तक किन लोगों से क्रोधित रहा? क्या उन्हीं से नहीं, जिन्होंने पाप किया, और उनके शव जंगल में पड़े रहे? (गिन. 14:29)18और उसने किन से शपथ खाई, कि तुम मेरे विश्राम में प्रवेश करने न पाओगे: केवल उनसे जिन्होंने आज्ञा न मानी? (भज. 106:24-26)19इस प्रकार हम देखते हैं, कि वे अविश्वास के कारण प्रवेश न कर सके।Chapter 4
विश्राम में प्रवेश
1इसलिए जब कि उसके विश्राम में प्रवेश करने की प्रतिज्ञा* अब तक है, तो हमें डरना चाहिए; ऐसा ने हो, कि तुम में से कोई जन उससे वंचित रह जाए।2क्योंकि हमें उन्हीं के समान सुसमाचार सुनाया गया है, पर सुने हुए वचन से उन्हें कुछ लाभ न हुआ; क्योंकि सुननेवालों के मन में विश्वास के साथ नहीं बैठा।3और हम जिन्होंने विश्वास किया है, उस विश्राम में प्रवेश करते हैं;जैसा उसने कहा, “मैंने अपने क्रोध में शपथ खाई,
कि वे मेरे विश्राम में प्रवेश करने न पाएँगे।” यद्यपि जगत की उत्पत्ति के समय से उसके काम हो चुके थे।
4क्योंकि सातवें दिन के विषय में उसने कहीं ऐसा कहा है,“परमेश्वर ने सातवें दिन अपने सब कामों को निपटा करके विश्राम किया।”
5और इस जगह फिर यह कहता है,“वे मेरे विश्राम में प्रवेश न करने पाएँगे।”
6तो जब यह बात बाकी है कि कितने और हैं जो उस विश्राम में प्रवेश करें, और इस्राएलियों को, जिन्हें उसका सुसमाचार पहले सुनाया गया, उन्होंने आज्ञा न मानने के कारण उसमें प्रवेश न किया।7तो फिर वह किसी विशेष दिन को ठहराकर इतने दिन के बाद दाऊद की पुस्तक में उसे ‘आज का दिन’ कहता है, जैसे पहले कहा गया,“यदि आज तुम उसका शब्द सुनो,
तो अपने मनों को कठोर न करो।” (भज. 95:7-8)
8और यदि यहोशू उन्हें विश्राम में प्रवेश करा लेता, तो उसके बाद दूसरे दिन की चर्चा न होती। (व्य. 31:7, यहो. 22:4)9इसलिए जान लो कि परमेश्वर के लोगों के लिये सब्त का विश्राम बाकी है।10क्योंकि जिस ने उसके विश्राम में प्रवेश किया है, उसने भी परमेश्वर के समान अपने कामों को पूरा करके विश्राम किया है। (प्रका. 14:13, उत्प. 2:2)11इसलिए हम उस विश्राम में प्रवेश करने का प्रयत्न करें, ऐसा न हो, कि कोई जन उनके समान आज्ञा न मानकर गिर पड़े। (इब्रा. 4:1, 2 पत. 1:10-11)12क्योंकि परमेश्वर का वचन* जीवित, प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत उत्तम है, प्राण, आत्मा को, गाँठ-गाँठ, और गूदे-गूदे को अलग करके, आर-पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जाँचता है। (यिर्म. 23:29, यशा. 55:11)13और सृष्टि की कोई वस्तु परमेश्वर से छिपी नहीं है वरन् जिसे हमें लेखा देना है, उसकी आँखों के सामने सब वस्तुएँ खुली और प्रगट हैं।हमारा महान महायाजक
14इसलिए, जब हमारा ऐसा बड़ा महायाजक है, जो स्वर्गों से होकर गया है, अर्थात् परमेश्वर का पुत्र यीशु; तो आओ, हम अपने अंगीकार को दृढ़ता से थामे रहें।15क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं, जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुःखी न हो सके*; वरन् वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया, तो भी निष्पाप निकला।16इसलिए आओ, हम अनुग्रह के सिंहासन के निकट साहस बाँधकर चलें, कि हम पर दया हो, और वह अनुग्रह पाएँ, जो आवश्यकता के समय हमारी सहायता करे।Chapter 5
महायाजक के लिये योग्यता
1क्योंकि हर एक महायाजक मनुष्यों में से लिया जाता है, और मनुष्यों ही के लिये उन बातों के विषय में जो परमेश्वर से सम्बन्ध रखती हैं, ठहराया जाता है: कि भेंट और पापबलि चढ़ाया करे।2और वह अज्ञानियों, और भूले भटकों के साथ नर्मी से व्यवहार कर सकता है इसलिए कि वह आप भी निर्बलता से घिरा है।3और इसलिए उसे चाहिए, कि जैसे लोगों के लिये, वैसे ही अपने लिये भी पाप-बलि चढ़ाया करे। (लैव्य. 16:6)4और यह आदर का पद कोई अपने आप से नहीं लेता, जब तक कि हारून के समान परमेश्वर की ओर से ठहराया न जाए। (निर्ग. 28:1)हमेशा के लिये महायाजक
5वैसे ही मसीह ने भी महायाजक बनने की महिमा अपने आप से नहीं ली, पर उसको उसी ने दी, जिस ने उससे कहा था,“तू मेरा पुत्र है,
आज मैं ही ने तुझे जन्माया है।” (भज. 2:7)
6इसी प्रकार वह दूसरी जगह में भी कहता है,“तू मेलिकिसिदक की रीति पर
सदा के लिये याजक है।”
7यीशु ने अपनी देह में रहने के दिनों में ऊँचे शब्द से पुकार-पुकारकर, और आँसू बहा-बहाकर उससे जो उसको मृत्यु से बचा सकता था, प्रार्थनाएँ और विनती की और भक्ति के कारण उसकी सुनी गई।8और पुत्र होने पर भी, उसने दुःख उठा-उठाकर आज्ञा माननी सीखी।9और सिद्ध बनकर*, अपने सब आज्ञा माननेवालों के लिये सदा काल के उद्धार का कारण हो गया। (यशा. 45:17)10और उसे परमेश्वर की ओर से मेलिकिसिदक की रीति पर महायाजक का पद मिला। (इब्रा. 2:10, भज. 110:4)आत्मिक अपरिपक्वता
11इसके विषय में हमें बहुत सी बातें कहनी हैं, जिनका समझाना भी कठिन है; इसलिए कि तुम ऊँचा सुनने लगे हो।12समय के विचार से तो तुम्हें गुरु हो जाना चाहिए था, तो भी यह आवश्यक है, कि कोई तुम्हें परमेश्वर के वचनों की आदि शिक्षा फिर से सिखाए? तुम तो ऐसे हो गए हो, कि तुम्हें अन्न के बदले अब तक दूध ही चाहिए।13क्योंकि दूध पीनेवाले* को तो धार्मिकता के वचन की पहचान नहीं होती, क्योंकि वह बच्चा है।14पर अन्न सयानों के लिये है, जिनकी ज्ञानेन्द्रियाँ अभ्यास करते-करते, भले-बुरे में भेद करने में निपुर्ण हो गई हैं।
Chapter 6
भटकने का परिणाम
1इसलिए आओ मसीह की शिक्षा की आरम्भ की बातों को छोड़कर, हम सिद्धता की ओर बढ़ते जाएँ, और मरे हुए कामों से मन फिराने, और परमेश्वर पर विश्वास करने,2और बपतिस्मा और हाथ रखने, और मरे हुओं के जी उठने, और अनन्त न्याय की शिक्षारूपी नींव, फिर से न डालें।3और यदि परमेश्वर चाहे, तो हम यहीं करेंगे।4क्योंकि जिन्होंने एक बार ज्योति पाई है, और जो स्वर्गीय वरदान का स्वाद चख चुके हैं और पवित्र आत्मा के भागी हो गए हैं,5और परमेश्वर के उत्तम वचन का और आनेवाले युग की सामर्थ्य का स्वाद चख चुके हैं*।6यदि वे भटक जाएँ; तो उन्हें मन फिराव के लिये फिर नया बनाना अनहोना है; क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र को अपने लिये फिर क्रूस पर चढ़ाते हैं और प्रगट में उस पर कलंक लगाते हैं।7क्योंकि जो भूमि वर्षा के पानी को जो उस पर बार-बार पड़ता है, पी पीकर जिन लोगों के लिये वह जोती-बोई जाती है, उनके काम का साग-पात उपजाती है, वह परमेश्वर से आशीष पाती है।8पर यदि वह झाड़ी और ऊँटकटारे उगाती है, तो निकम्मी और श्रापित होने पर है, और उसका अन्त जलाया जाना है। (यूह. 15:6)9पर हे प्रियों यद्यपि हम ये बातें कहते हैं तो भी तुम्हारे विषय में हम इससे अच्छी और उद्धारवाली बातों का भरोसा करते हैं।10क्योंकि परमेश्वर अन्यायी नहीं, कि तुम्हारे काम, और उस प्रेम को भूल जाए, जो तुम ने उसके नाम के लिये इस रीति से दिखाया, कि पवित्र लोगों की सेवा की, और कर भी रहे हो।11पर हम बहुत चाहते हैं, कि तुम में से हर एक जन अन्त तक पूरी आशा के लिये ऐसा ही प्रयत्न करता रहे।12ताकि तुम आलसी न हो जाओ; वरन् उनका अनुकरण करो, जो विश्वास और धीरज के द्वारा प्रतिज्ञाओं के वारिस होते हैं।विश्वसनीय प्रतिज्ञा
13और परमेश्वर ने अब्राहम को प्रतिज्ञा देते समय* जब कि शपथ खाने के लिये किसी को अपने से बड़ा न पाया, तो अपनी ही शपथ खाकर कहा,14“मैं सचमुच तुझे बहुत आशीष दूँगा, और तेरी सन्तान को बढ़ाता जाऊँगा।” (उत्प. 22:17)15और इस रीति से उसने धीरज धरकर प्रतिज्ञा की हुई बात प्राप्त की।16मनुष्य तो अपने से किसी बड़े की शपथ खाया करते हैं और उनके हर एक विवाद का फैसला शपथ से पक्का होता है। (निर्ग. 22:11)17इसलिए जब परमेश्वर ने प्रतिज्ञा के वारिसों पर और भी साफ रीति से प्रगट करना चाहा, कि उसकी मनसा बदल नहीं सकती तो शपथ को बीच में लाया।18ताकि दो बे-बदल बातों के द्वारा जिनके विषय में परमेश्वर का झूठा ठहरना अनहोना है, हमारा दृढ़ता से ढाढ़स बन्ध जाए, जो शरण लेने को इसलिए दौड़े है, कि उस आशा को जो सामने रखी हुई है प्राप्त करें। (गिन. 23:19, 1 शमू. 15:29)19वह आशा हमारे प्राण के लिये ऐसा लंगर है जो स्थिर और दृढ़ है*, और परदे के भीतर तक पहुँचता है। (गिन. 23:19, 1 तीमु. 2:13)20जहाँ यीशु ने मेलिकिसिदक की रीति पर सदा काल का महायाजक बनकर, हमारे लिये अगुआ के रूप में प्रवेश किया है।
Chapter 7
मेलिकिसिदक याजक
1यह मेलिकिसिदक* शालेम का राजा, और परमप्रधान परमेश्वर का याजक, जब अब्राहम राजाओं को मारकर लौटा जाता था, तो इसी ने उससे भेंट करके उसे आशीष दी,2इसी को अब्राहम ने सब वस्तुओं का दसवाँ अंश भी दिया। यह पहले अपने नाम के अर्थ के अनुसार, धार्मिकता का राजा और फिर शालेम अर्थात् शान्ति का राजा है।3जिसका न पिता, न माता, न वंशावली है, जिसके न दिनों का आदि है और न जीवन का अन्त है; परन्तु परमेश्वर के पुत्र के स्वरूप ठहरकर वह सदा के लिए याजक बना रहता है।4अब इस पर ध्यान करो कि यह कैसा महान था* जिसको कुलपति अब्राहम ने अच्छे से अच्छे माल की लूट का दसवाँ अंश दिया।5लेवी की संतान में से जो याजक का पद पाते हैं, उन्हें आज्ञा मिली है, कि लोगों, अर्थात् अपने भाइयों से चाहे, वे अब्राहम ही की देह से क्यों न जन्मे हों, व्यवस्था के अनुसार दसवाँ अंश लें। (गिन. 18:21)6पर इसने, जो उनकी वंशावली में का भी न था अब्राहम से दसवाँ अंश लिया और जिसे प्रतिज्ञाएँ मिली थी उसे आशीष दी।7और उसमें संदेह नहीं, कि छोटा बड़े से आशीष पाता है।8और यहाँ तो मरनहार मनुष्य दसवाँ अंश लेते हैं पर वहाँ वही लेता है, जिसकी गवाही दी जाती है, कि वह जीवित है।9तो हम यह भी कह सकते हैं, कि लेवी ने भी, जो दसवाँ अंश लेता है, अब्राहम के द्वारा दसवाँ अंश दिया।10क्योंकि जिस समय मेलिकिसिदक ने उसके पिता से भेंट की, उस समय यह अपने पिता की देह में था। (उत्प. 14:18-20)एक नये याजक की आवश्यकता
11तब यदि लेवीय याजक पद के द्वारा सिद्धि हो सकती है (जिसके सहारे से लोगों को व्यवस्था मिली थी) तो फिर क्या आवश्यकता थी, कि दूसरा याजक मेलिकिसिदक की रीति पर खड़ा हो, और हारून की रीति का न कहलाए?12क्योंकि जब याजक का पद बदला जाता है? तो व्यवस्था का भी बदलना अवश्य है।13क्योंकि जिसके विषय में ये बातें कही जाती हैं, वह दूसरे गोत्र का है, जिसमें से किसी ने वेदी की सेवा नहीं की।14तो प्रगट है, कि हमारा प्रभु यहूदा के गोत्र में से उदय हुआ है और इस गोत्र के विषय में मूसा ने याजक पद की कुछ चर्चा नहीं की। (उत्प. 49:10, यशा. 11:1)15हमारा दावा और भी स्पष्टता से प्रकट हो जाता है, जब मेलिकिसिदक के समान एक और ऐसा याजक उत्पन्न होनेवाला था।16जो शारीरिक आज्ञा की व्यवस्था के अनुसार नहीं, पर अविनाशी जीवन की सामर्थ्य के अनुसार नियुक्त हो।17क्योंकि उसके विषय में यह गवाही दी गई है,“तू मेलिकिसिदक की रीति पर
युगानुयुग याजक है।”
18निदान, पहली आज्ञा निर्बल; और निष्फल होने के कारण लोप हो गई।19(इसलिए कि व्यवस्था ने किसी बात की सिद्धि नहीं की*) और उसके स्थान पर एक ऐसी उत्तम आशा रखी गई है जिसके द्वारा हम परमेश्वर के समीप जा सकते हैं।नये महायाजक की महानता
20और इसलिए मसीह की नियुक्ति बिना शपथ नहीं हुई।21क्योंकि वे तो बिना शपथ याजक ठहराए गए पर यह शपथ के साथ उसकी ओर से नियुक्त किया गया जिस ने उसके विषय में कहा,“प्रभु ने शपथ खाई, और वह उससे फिर न पछताएगा,
कि तू युगानुयुग याजक है”।
22इस कारण यीशु एक उत्तम वाचा का जामिन ठहरा।23वे तो बहुत से याजक बनते आए, इसका कारण यह था कि मृत्यु उन्हें रहने नहीं देती थी।24पर यह युगानुयुग रहता है; इस कारण उसका याजक पद अटल है।25इसलिए जो उसके द्वारा परमेश्वर के पास आते हैं, वह उनका पूरा-पूरा उद्धार कर सकता है, क्योंकि वह उनके लिये विनती करने को सर्वदा जीवित है। (1 यूह. 2:1-2, 1 तीमु. 2:5)26क्योंकि ऐसा ही महायाजक हमारे योग्य था, जो पवित्र, और निष्कपट और निर्मल, और पापियों से अलग, और स्वर्ग से भी ऊँचा किया हुआ हो।27और उन महायाजकों के समान उसे आवश्यक नहीं कि प्रतिदिन पहले अपने पापों और फिर लोगों के पापों के लिये बलिदान चढ़ाए; क्योंकि उसने अपने आप को बलिदान चढ़ाकर उसे एक ही बार निपटा दिया। (लैव्य. 16:6, इब्रा. 10:10,12,14)28क्योंकि व्यवस्था तो निर्बल मनुष्यों को महायाजक नियुक्त करती है; परन्तु उस शपथ का वचन जो व्यवस्था के बाद खाई गई, उस पुत्र को नियुक्त करता है जो युगानुयुग के लिये सिद्ध किया गया है।
Chapter 8
स्वर्गीय महायाजक
1अब जो बातें हम कह रहे हैं, उनमें से सबसे बड़ी बात यह है, कि हमारा ऐसा महायाजक है, जो स्वर्ग पर महामहिमन् के सिंहासन के दाहिने जा बैठा*। (भज. 110:1, इब्रा. 10:12)2और पवित्रस्थान और उस सच्चे तम्बू का सेवक हुआ, जिसे किसी मनुष्य ने नहीं, वरन् प्रभु ने खड़ा किया था।3क्योंकि हर एक महायाजक भेंट, और बलिदान चढ़ाने के लिये ठहराया जाता है, इस कारण अवश्य है, कि इसके पास भी कुछ चढ़ाने के लिये हो।4और यदि मसीह पृथ्वी पर होता तो कभी याजक न होता, इसलिए कि पृथ्वी पर व्यवस्था के अनुसार भेंट चढ़ानेवाले तो हैं।5जो स्वर्ग में की वस्तुओं के प्रतिरूप और प्रतिबिम्ब* की सेवा करते हैं, जैसे जब मूसा तम्बू बनाने पर था, तो उसे यह चेतावनी मिली, “देख जो नमूना तुझे पहाड़ पर दिखाया गया था, उसके अनुसार सब कुछ बनाना।” (निर्ग. 25:40)6पर उन याजकों से बढ़कर सेवा यीशु को मिली, क्योंकि वह और भी उत्तम वाचा का मध्यस्थ ठहरा, जो और उत्तम प्रतिज्ञाओं के सहारे बाँधी गई है।नयी वाचा
7क्योंकि यदि वह पहली वाचा निर्दोष होती, तो दूसरी के लिये अवसर न ढूँढ़ा जाता।8पर परमेश्वर लोगों पर दोष लगाकर कहता है,“प्रभु कहता है, देखो वे दिन आते हैं,
कि मैं इस्राएल के घराने के साथ, और यहूदा के घराने के साथ, नई वाचा बाँधूँगा
9यह उस वाचा के समान न होगी, जो मैंने उनके पूर्वजों के साथ उस समय बाँधी थी,जब मैं उनका हाथ पकड़कर उन्हें मिस्र देश से निकाल लाया,
क्योंकि वे मेरी वाचा पर स्थिर न रहे,
और मैंने उनकी सुधि न ली; प्रभु यही कहता है।
10फिर प्रभु कहता है,कि जो वाचा मैं उन दिनों के बाद इस्राएल के घराने के साथ बाँधूँगा, वह यह है,
कि मैं अपनी व्यवस्था को उनके मनों में डालूँगा,
और उसे उनके हृदय पर लिखूँगा,
और मैं उनका परमेश्वर ठहरूँगा,
और वे मेरे लोग ठहरेंगे।
11और हर एक अपने देशवाले कोऔर अपने भाई को यह शिक्षा न देगा, कि तू प्रभु को पहचान
क्योंकि छोटे से बड़े तक सब मुझे जान लेंगे।
12क्योंकि मैं उनके अधर्म के विषय में दयावन्त हूँगा,और उनके पापों को फिर स्मरण न करूँगा।”
13नई वाचा के स्थापना से उसने प्रथम वाचा को पुरानी ठहराई, और जो वस्तु पुरानी और जीर्ण हो जाती है उसका मिट जाना अनिवार्य है। (यिर्म. 31:31-34, यिर्म. 31:33-34)Chapter 9
सांसारिक तम्बू
1निदान, उस पहली वाचा* में भी सेवा के नियम थे; और ऐसा पवित्रस्थान था जो इस जगत का था।2अर्थात् एक तम्बू बनाया गया, पहले तम्बू में दीवट, और मेज, और भेंट की रोटियाँ थी; और वह पवित्रस्थान कहलाता है। (निर्ग. 25:23-30, निर्ग. 26:1-30)3और दूसरे परदे के पीछे वह तम्बू था, जो परमपवित्र स्थान कहलाता है। (निर्ग. 26:31-33)4उसमें सोने की धूपदानी, और चारों ओर सोने से मढ़ा हुआ वाचा का संदूक और इसमें मन्ना से भरा हुआ सोने का मर्तबान और हारून की छड़ी जिसमें फूल फल आ गए थे और वाचा की पटियाँ थीं। (निर्ग. 16:33, निर्ग. 25:10-16, निर्ग. 30:1-6, गिन. 17:8-10, व्य. 10:3,5)5उसके ऊपर दोनों तेजोमय करूब* थे, जो प्रायश्चित के ढक्कन पर छाया किए हुए थे: इन्हीं का एक-एक करके वर्णन करने का अभी अवसर नहीं है। (निर्ग. 25:18-22)सांसारिक सेवा की सीमाएँ
6ये वस्तुएँ इस रीति से तैयार हो चुकी, उस पहले तम्बू में तो याजक हर समय प्रवेश करके सेवा के काम सम्पन्न करते हैं, (व्य. 27:21)7पर दूसरे में केवल महायाजक वर्ष भर में एक ही बार जाता है; और बिना लहू लिये नहीं जाता; जिसे वह अपने लिये और लोगों की भूल चूक के लिये चढ़ाता है। (निर्ग. 30:10, लैव्य. 16:2)8इससे पवित्र आत्मा यही दिखाता है, कि जब तक पहला तम्बू खड़ा है, तब तक पवित्रस्थान का मार्ग प्रगट नहीं हुआ।9और यह तम्बू तो वर्तमान समय के लिये एक दृष्टान्त है; जिसमें ऐसी भेंट और बलिदान चढ़ाए जाते हैं, जिनसे आराधना करनेवालों के विवेक सिद्ध नहीं हो सकते।10इसलिए कि वे केवल खाने-पीने की वस्तुओं, और भाँति-भाँति के स्नान विधि के आधार पर शारीरिक नियम हैं, जो सुधार के समय तक के लिये नियुक्त किए गए हैं।स्वर्गीय तम्बू
11परन्तु जब मसीह आनेवाली अच्छी-अच्छी वस्तुओं का महायाजक होकर आया, तो उसने और भी बड़े और सिद्ध तम्बू से होकर जो हाथ का बनाया हुआ नहीं, अर्थात् सृष्टि का नहीं।12और बकरों और बछड़ों के लहू के द्वारा नहीं, पर अपने ही लहू के द्वारा एक ही बार पवित्रस्थान में प्रवेश किया, और अनन्त छुटकारा प्राप्त किया।13क्योंकि जब बकरों और बैलों का लहू और कलोर की राख अपवित्र लोगों पर छिड़के जाने से शरीर की शुद्धता के लिये पवित्र करती है। (लैव्य. 16:14-16, लैव्य. 16:3, गिन. 19:9,17-19)14तो मसीह का लहू जिस ने अपने आप को सनातन आत्मा के द्वारा परमेश्वर के सामने निर्दोष चढ़ाया, तुम्हारे विवेक को मरे हुए कामों से क्यों न शुद्ध करेगा, ताकि तुम जीविते परमेश्वर की सेवा करो।15और इसी कारण वह नई वाचा का मध्यस्थ* है, ताकि उस मृत्यु के द्वारा जो पहली वाचा के समय के अपराधों से छुटकारा पाने के लिये हुई है, बुलाए हुए लोग प्रतिज्ञा के अनुसार अनन्त विरासत को प्राप्त करें।16क्योंकि जहाँ वाचा बाँधी गई है वहाँ वाचा बाँधनेवाले की मृत्यु का समझ लेना भी अवश्य है।17क्योंकि ऐसी वाचा मरने पर पक्की होती है, और जब तक वाचा बान्धनेवाला जीवित रहता है, तब तक वाचा काम की नहीं होती।18इसलिए पहली वाचा भी बिना लहू के नहीं बाँधी गई।19क्योंकि जब मूसा सब लोगों को व्यवस्था की हर एक आज्ञा सुना चुका, तो उसने बछड़ों और बकरों का लहू लेकर, पानी और लाल ऊन, और जूफा के साथ, उस पुस्तक पर और सब लोगों पर छिड़क दिया। (लैव्य. 14:4 गिन. 19:6)20और कहा, “यह उस वाचा का लहू है, जिसकी आज्ञा परमेश्वर ने तुम्हारे लिये दी है।” (निर्ग. 24:8)21और इसी रीति से उसने तम्बू और सेवा के सारे सामान पर लहू छिड़का। (लैव्य. 8:15, लैव्य. 8:19)22और व्यवस्था के अनुसार प्रायः सब वस्तुएँ लहू के द्वारा शुद्ध की जाती हैं; और बिना लहू बहाए क्षमा नहीं होती। (लैव्य. 17:11)मसीह के बलिदान द्वारा पाप—क्षमा
23इसलिए अवश्य है, कि स्वर्ग में की वस्तुओं के प्रतिरूप इन बलिदानों के द्वारा शुद्ध किए जाएँ; पर स्वर्ग में की वस्तुएँ आप इनसे उत्तम बलिदानों के द्वारा शुद्ध की जातीं।24क्योंकि मसीह ने उस हाथ के बनाए हुए पवित्रस्थान में जो सच्चे पवित्रस्थान का नमूना है, प्रवेश नहीं किया, पर स्वर्ग ही में प्रवेश किया, ताकि हमारे लिये अब परमेश्वर के सामने दिखाई दे*।25यह नहीं कि वह अपने आप को बार-बार चढ़ाए, जैसा कि महायाजक प्रति वर्ष दूसरे का लहू लिये पवित्रस्थान में प्रवेश किया करता है।26नहीं तो जगत की उत्पत्ति से लेकर उसको बार-बार दुःख उठाना पड़ता; पर अब युग के अन्त में वह एक बार प्रगट हुआ है, ताकि अपने ही बलिदान के द्वारा पाप को दूर कर दे।27और जैसे मनुष्यों के लिये एक बार मरना और उसके बाद न्याय का होना नियुक्त है। (2 कुरि. 5:10, सभो. 12:14)28वैसे ही मसीह भी बहुतों के पापों को उठा लेने के लिये एक बार बलिदान हुआ और जो लोग उसकी प्रतीक्षा करते हैं, उनके उद्धार के लिये दूसरी बार बिना पाप के दिखाई देगा। (1 पत. 2:24, तीतु. 2:13)
Chapter 10
पशु का बलिदान अपर्याप्त
1क्योंकि व्यवस्था* जिसमें आनेवाली अच्छी वस्तुओं का प्रतिबिम्ब है, पर उनका असली स्वरूप नहीं, इसलिए उन एक ही प्रकार के बलिदानों के द्वारा, जो प्रति वर्ष अचूक चढ़ाए जाते हैं, पास आनेवालों को कदापि सिद्ध नहीं कर सकती।2नहीं तो उनका चढ़ाना बन्द क्यों न हो जाता? इसलिए कि जब सेवा करनेवाले एक ही बार शुद्ध हो जाते, तो फिर उनका विवेक उन्हें पापी न ठहराता।3परन्तु उनके द्वारा प्रति वर्ष पापों का स्मरण हुआ करता है।4क्योंकि अनहोना है, कि बैलों और बकरों का लहू पापों को दूर करे*।मसीह का बलिदान पर्याप्त
5इसी कारण मसीह जगत में आते समय कहता है,“बलिदान और भेंट तूने न चाहा,
पर मेरे लिये एक देह तैयार किया।
6होमबलियों और पापबलियों से तू प्रसन्न नहीं हुआ।
7तब मैंने कहा, ‘देख, मैं आ गया हूँ, (पवित्रशास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है) ताकि हे परमेश्वर तेरी इच्छा पूरी करूँ’।” 8ऊपर तो वह कहता है, “न तूने बलिदान और भेंट और होमबलियों और पापबलियों को चाहा, और न उनसे प्रसन्न हुआ,” यद्यपि ये बलिदान तो व्यवस्था के अनुसार चढ़ाए जाते हैं।9फिर यह भी कहता है, “देख, मैं आ गया हूँ, ताकि तेरी इच्छा पूरी करूँ,” निदान वह पहले को हटा देता है, ताकि दूसरे को नियुक्त करे।10उसी इच्छा से हम यीशु मसीह की देह के एक ही बार बलिदान चढ़ाए जाने के द्वारा पवित्र किए गए हैं। (इब्रा. 10:14)11और हर एक याजक तो खड़े होकर प्रतिदिन सेवा करता है, और एक ही प्रकार के बलिदान को जो पापों को कभी भी दूर नहीं कर सकते; बार-बार चढ़ाता है। (निर्ग. 29:38-39)12पर यह व्यक्ति तो पापों के बदले एक ही बलिदान सर्वदा के लिये चढ़ाकर परमेश्वर के दाहिने जा बैठा।13और उसी समय से इसकी प्रतीक्षा कर रहा है, कि उसके बैरी उसके पाँवों के नीचे की चौकी बनें। (भज. 110:1)14क्योंकि उसने एक ही चढ़ावे के द्वारा उन्हें जो पवित्र किए जाते हैं, सर्वदा के लिये सिद्ध कर दिया है।15और पवित्र आत्मा भी हमें यही गवाही देता है; क्योंकि उसने पहले कहा था16“प्रभु कहता है; कि जो वाचा मैंउन दिनों के बाद उनसे बाँधूँगा वह यह है कि
मैं अपनी व्यवस्थाओं को उनके हृदय पर लिखूँगा
और मैं उनके विवेक में डालूँगा।”
17(फिर वह यह कहता है,) “मैं उनके पापों को, और उनके अधर्म के कामों को फिर कभी स्मरण न करूँगा।” (इब्रा. 8:12, यिर्म. 31:34)18और जब इनकी क्षमा हो गई है, तो फिर पाप का बलिदान नहीं रहा।साहस के साथ परमेश्वर तक पहुँच
19इसलिए हे भाइयों, जब कि हमें यीशु के लहू के द्वारा उस नये और जीविते मार्ग से पवित्रस्थान में प्रवेश करने का साहस हो गया है,20जो उसने परदे अर्थात् अपने शरीर में से होकर, हमारे लिये अभिषेक किया है,21और इसलिए कि हमारा ऐसा महान याजक है, जो परमेश्वर के घर का अधिकारी है।22तो आओ; हम सच्चे मन, और पूरे विश्वास के साथ, और विवेक का दोष दूर करने के लिये हृदय पर छिड़काव लेकर, और देह को शुद्ध जल से धुलवाकर परमेश्वर के समीप जाएँ*। (इफि. 5:26, 1 पत. 3:21, यहे. 36:25)23और अपनी आशा के अंगीकार को दृढ़ता से थामे रहें; क्योंकि जिस ने प्रतिज्ञा की है, वह विश्वासयोग्य है।24और प्रेम, और भले कामों में उस्काने के लिये एक दूसरे की चिन्ता किया करें।25और एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना न छोड़ें, जैसे कि कितनों की रीति है, पर एक दूसरे को समझाते रहें; और ज्यों-ज्यों उस दिन को निकट आते देखो, त्यों-त्यों और भी अधिक यह किया करो।26क्योंकि सच्चाई की पहचान प्राप्त करने के बाद यदि हम जान-बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं।27हाँ, दण्ड की एक भयानक उम्मीद और आग का ज्वलन बाकी है जो विरोधियों को भस्म कर देगा। (यशा. 26:11)28जब कि मूसा की व्यवस्था का न माननेवाला दो या तीन जनों की गवाही पर, बिना दया के मार डाला जाता है। (व्य. 17:6, व्य. 19:15)29तो सोच लो कि वह कितने और भी भारी दण्ड के योग्य ठहरेगा, जिस ने परमेश्वर के पुत्र को पाँवों से रौंदा, और वाचा के लहू को जिसके द्वारा वह पवित्र ठहराया गया था, अपवित्र जाना हैं, और अनुग्रह की आत्मा का अपमान किया। (इब्रा. 12:25)30क्योंकि हम उसे जानते हैं, जिस ने कहा, “पलटा लेना मेरा काम है, मैं ही बदला दूँगा।” और फिर यह, कि “प्रभु अपने लोगों का न्याय करेगा।” (व्य. 32:35-36, भज. 135:14)31जीविते परमेश्वर के हाथों में पड़ना भयानक बात है।32परन्तु उन पहले दिनों को स्मरण करो, जिनमें तुम ज्योति पा कर दुःखों के बड़े संघर्ष में स्थिर रहे।33कुछ तो यों, कि तुम निन्दा, और क्लेश सहते हुए तमाशा बने, और कुछ यों, कि तुम उनके सहभागी हुए जिनकी दुर्दशा की जाती थीं।34क्योंकि तुम कैदियों के दुःख में भी दुःखी हुए, और अपनी संपत्ति भी आनन्द से लुटने दी; यह जानकर, कि तुम्हारे पास एक और भी उत्तम और सर्वदा ठहरनेवाली संपत्ति है।35इसलिए, अपना साहस न छोड़ो क्योंकि उसका प्रतिफल बड़ा है।36क्योंकि तुम्हें धीरज धरना अवश्य है, ताकि परमेश्वर की इच्छा को पूरी करके तुम प्रतिज्ञा का फल पाओ।37“क्योंकि अब बहुत ही थोड़ा समय रह गया हैजब कि आनेवाला आएगा, और देर न करेगा।
38और मेरा धर्मी जन विश्वास से जीवित रहेगा,और यदि वह पीछे हट जाए तो मेरा मन उससे प्रसन्न न होगा।” (हब. 2:4, गला. 3:11)
39पर हम हटनेवाले नहीं, कि नाश हो जाएँ पर विश्वास करनेवाले हैं, कि प्राणों को बचाएँ।Chapter 11
विश्वास के नायक
1अब विश्वास आशा की हुई वस्तुओं का निश्चय, और अनदेखी वस्तुओं का प्रमाण है।2क्योंकि इसी के विषय में पूर्वजों की अच्छी गवाही दी गईं।3विश्वास ही से हम जान जाते हैं, कि सारी सृष्टि की रचना परमेश्वर के वचन के द्वारा हुई है। यह नहीं, कि जो कुछ देखने में आता है, वह देखी हुई वस्तुओं से बना हो। (उत्प. 1:1, यूह. 1:3, भज. 33:6,9)4विश्वास ही से हाबिल ने कैन से उत्तम बलिदान परमेश्वर के लिये चढ़ाया; और उसी के द्वारा उसके धर्मी होने की गवाही भी दी गई: क्योंकि परमेश्वर ने उसकी भेंटों के विषय में गवाही दी; और उसी के द्वारा वह मरने पर भी अब तक बातें करता है। (उत्प. 4:3-5,10)5विश्वास ही से हनोक उठा लिया गया, कि मृत्यु को न देखे, और उसका पता नहीं मिला; क्योंकि परमेश्वर ने उसे उठा लिया था, और उसके उठाए जाने से पहले उसकी यह गवाही दी गई थी, कि उसने परमेश्वर को प्रसन्न किया है। (उत्प. 5:21-24)6और विश्वास बिना उसे प्रसन्न करना अनहोना है*, क्योंकि परमेश्वर के पास आनेवाले को विश्वास करना चाहिए, कि वह है; और अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है।7विश्वास ही से नूह ने उन बातों के विषय में जो उस समय दिखाई न पड़ती थीं, चेतावनी पा कर भक्ति के साथ अपने घराने के बचाव के लिये जहाज बनाया, और उसके द्वारा उसने संसार को दोषी ठहराया; और उस धार्मिकता का वारिस हुआ, जो विश्वास से होता है। (उत्प. 6:13-22, उत्प. 7:1)8विश्वास ही से अब्राहम जब बुलाया गया तो आज्ञा मानकर ऐसी जगह निकल गया जिसे विरासत में लेनेवाला था, और यह न जानता था, कि मैं किधर जाता हूँ; तो भी निकल गया। (उत्प. 12:1)9विश्वास ही से उसने प्रतिज्ञा किए हुए देश में जैसे पराए देश में परदेशी रहकर इसहाक और याकूब समेत जो उसके साथ उसी प्रतिज्ञा के वारिस थे, तम्बूओं में वास किया। (उत्प. 26:3, उत्प. 35:12, उत्प. 35:27)10क्योंकि वह उस स्थिर नींव वाले नगर की प्रतीक्षा करता था, जिसका रचनेवाला और बनानेवाला परमेश्वर है।11विश्वास से सारा ने आप बूढ़ी होने पर भी गर्भ धारण करने की सामर्थ्य पाई; क्योंकि उसने प्रतिज्ञा करनेवाले को सच्चा जाना था। (उत्प. 17:19, उत्प. 18:11-14, उत्प. 21:2)12इस कारण एक ही जन से जो मरा हुआ सा था, आकाश के तारों और समुद्र तट के रेत के समान, अनगिनत वंश उत्पन्न हुआ। (उत्प. 15:5, उत्प. 2:12)13ये सब विश्वास ही की दशा में मरे; और उन्होंने प्रतिज्ञा की हुई वस्तुएँ नहीं पाई; पर उन्हें दूर से देखकर आनन्दित हुए और मान लिया, कि हम पृथ्वी पर परदेशी और बाहरी हैं। (उत्प. 23:4, 1 इति. 29:15)14जो ऐसी-ऐसी बातें कहते हैं, वे प्रगट करते हैं, कि स्वदेश की खोज में हैं।15और जिस देश से वे निकल आए थे, यदि उसकी सुधि करते तो उन्हें लौट जाने का अवसर था।16पर वे एक उत्तम अर्थात् स्वर्गीय देश के अभिलाषी हैं, इसलिए परमेश्वर उनका परमेश्वर कहलाने में नहीं लजाता, क्योंकि उसने उनके लिये एक नगर तैयार किया है। (निर्ग. 3:6, निर्ग. 3:15)17विश्वास ही से अब्राहम ने, परखे जाने के समय में, इसहाक को बलिदान चढ़ाया, और जिस ने प्रतिज्ञाओं को सच माना था। (उत्प. 22:1-10)18और जिससे यह कहा गया था, “इसहाक से तेरा वंश कहलाएगा,” वह अपने एकलौते को चढ़ाने लगा। (उत्प. 21:12)19क्योंकि उसने मान लिया, कि परमेश्वर सामर्थी है, कि उसे मरे हुओं में से जिलाए, इस प्रकार उन्हीं में से दृष्टान्त की रीति पर वह उसे फिर मिला।20विश्वास ही से इसहाक ने याकूब और एसाव को आनेवाली बातों के विषय में आशीष दी। (उत्प. 27:27-40)21विश्वास ही से याकूब ने मरते समय यूसुफ के दोनों पुत्रों में से एक-एक को आशीष दी, और अपनी लाठी के सिरे पर सहारा लेकर दण्डवत् किया। (उत्प. 47:31, उत्प. 48:15,16)22विश्वास ही से यूसुफ ने, जब वह मरने पर था, तो इस्राएल की सन्तान के निकल जाने की चर्चा की, और अपनी हड्डियों के विषय में आज्ञा दी। (उत्प. 50:24-25, निर्ग. 13:19)23विश्वास ही से मूसा के माता पिता ने उसको, उत्पन्न होने के बाद तीन महीने तक छिपा रखा; क्योंकि उन्होंने देखा, कि बालक सुन्दर है, और वे राजा की आज्ञा से न डरे। (निर्ग. 1:22, निर्ग. 2:2)24विश्वास ही से मूसा ने सयाना होकर फ़िरौन की बेटी का पुत्र कहलाने से इन्कार किया। (निर्ग. 2:11)25इसलिए कि उसे पाप में थोड़े दिन के सुख भोगने से परमेश्वर के लोगों के साथ दुःख भोगना और भी उत्तम लगा।26और मसीह के कारण* निन्दित होने को मिस्र के भण्डार से बड़ा धन समझा क्योंकि उसकी आँखें फल पाने की ओर लगी थीं। (1 पत. 4:14, मत्ती 5:12)27विश्वास ही से राजा के क्रोध से न डरकर उसने मिस्र को छोड़ दिया, क्योंकि वह अनदेखे को मानो देखता हुआ दृढ़ रहा। (निर्ग. 2:15, निर्ग. 10:28-29)28विश्वास ही से उसने फसह और लहू छिड़कने की विधि मानी, कि पहलौठों का नाश करनेवाला इस्राएलियों पर हाथ न डाले। (निर्ग. 12:21-29)29विश्वास ही से वे लाल समुद्र के पार ऐसे उतर गए, जैसे सूखी भूमि पर से; और जब मिस्रियों ने वैसा ही करना चाहा, तो सब डूब मरे। (निर्ग. 14:21-31)30विश्वास ही से यरीहो की शहरपनाह, जब सात दिन तक उसका चक्कर लगा चुके तो वह गिर पड़ी। (भज. 106:9-11, यहो. 6:12-21)31विश्वास ही से राहाब वेश्या आज्ञा न माननेवालों के साथ नाश नहीं हुई; इसलिए कि उसने भेदियों को कुशल से रखा था। (याकू. 2:25, यहो. 2:11-12, यहो. 6:21-25)32अब और क्या कहूँ? क्योंकि समय नहीं रहा, कि गिदोन का, और बाराक और शिमशोन का, और यिफतह का, और दाऊद का और शमूएल का, और भविष्यद्वक्ताओं का वर्णन करूँ।33इन्होंने विश्वास ही के द्वारा राज्य जीते; धार्मिकता के काम किए; प्रतिज्ञा की हुई वस्तुएँ प्राप्त की, सिंहों के मुँह बन्द किए,34आग की ज्वाला को ठण्डा किया; तलवार की धार से बच निकले, निर्बलता में बलवन्त हुए; लड़ाई में वीर निकले; विदेशियों की फौजों को मार भगाया।35स्त्रियों ने अपने मरे हुओं को फिर जीविते पाया; कितने तो मार खाते-खाते मर गए; और छुटकारा न चाहा; इसलिए कि उत्तम पुनरुत्थान के भागी हों।36दूसरे लोग तो उपहास में उड़ाएँ जाने; और कोड़े खाने; वरन् बाँधे जाने; और कैद में पड़ने के द्वारा परखे गए।37पत्थराव किए गए; आरे से चीरे गए; उनकी परीक्षा की गई; तलवार से मारे गए; वे कंगाली में और क्लेश में और दुःख भोगते हुए भेड़ों और बकरियों की खालें ओढ़े हुए, इधर-उधर मारे-मारे फिरे।38और जंगलों, और पहाड़ों, और गुफाओं में, और पृथ्वी की दरारों में भटकते फिरे।39संसार उनके योग्य न था : और विश्वास ही के द्वारा इन सब के विषय में अच्छी गवाही दी गई, तो भी उन्हें प्रतिज्ञा की हुई वस्तु न मिली।40क्योंकि परमेश्वर ने हमारे लिये पहले से एक उत्तम बात ठहराई*, कि वे हमारे बिना सिद्धता को न पहुँचे।
Chapter 12
धीरज की बुलाहट
1इस कारण जब कि गवाहों का ऐसा बड़ा बादल हमको घेरे हुए है, तो आओ, हर एक रोकनेवाली वस्तु, और उलझानेवाले पाप को दूर करके, वह दौड़ जिसमें हमें दौड़ना है, धीरज से दौड़ें।2और विश्वास के कर्ता और सिद्ध करनेवाले* यीशु की ओर ताकते रहें; जिस ने उस आनन्द के लिये जो उसके आगे धरा था, लज्जा की कुछ चिन्ता न करके, क्रूस का दुःख सहा; और सिंहासन पर परमेश्वर के दाहिने जा बैठा। (1 पत. 2:23-24, तीतु. 2:13-14)परमेश्वर द्वारा ताड़ना
3इसलिए उस पर ध्यान करो, जिस ने अपने विरोध में पापियों का इतना वाद-विवाद सह लिया कि तुम निराश होकर साहस न छोड़ दो।4तुम ने पाप से लड़ते हुए उससे ऐसी मुठभेड़ नहीं की, कि तुम्हारा लहू बहा हो।5और तुम उस उपदेश को जो तुम को पुत्रों के समान दिया जाता है, भूल गए हो:“हे मेरे पुत्र, प्रभु की ताड़ना को हलकी बात न जान,
और जब वह तुझे घुड़के तो साहस न छोड़।
6क्योंकि प्रभु, जिससे प्रेम करता है, उसकी ताड़ना भी करता है;और जिसे पुत्र बना लेता है, उसको कोड़े भी लगाता है।”
7तुम दुःख को ताड़ना समझकर सह लो; परमेश्वर तुम्हें पुत्र जानकर तुम्हारे साथ बर्ताव करता है, वह कौन सा पुत्र है, जिसकी ताड़ना पिता नहीं करता? (नीति. 3:11-12, व्य. 8:5, 2 शमू. 7:14)8यदि वह ताड़ना जिसके भागी सब होते हैं, तुम्हारी नहीं हुई, तो तुम पुत्र नहीं, पर व्यभिचार की सन्तान ठहरे!9फिर जब कि हमारे शारीरिक पिता भी हमारी ताड़ना किया करते थे और हमने उनका आदर किया, तो क्या आत्माओं के पिता के और भी अधीन न रहें जिससे हम जीवित रहें।10वे तो अपनी-अपनी समझ के अनुसार थोड़े दिनों के लिये ताड़ना करते थे, पर यह तो हमारे लाभ के लिये करता है, कि हम भी उसकी पवित्रता के भागी हो जाएँ।आत्मिक जीवन शक्ति का नवीनीकरण
11और वर्तमान में हर प्रकार की ताड़ना आनन्द की नहीं, पर शोक ही की बात दिखाई पड़ती है, तो भी जो उसको सहते-सहते पक्के हो गए हैं, पीछे उन्हें चैन के साथ धार्मिकता का प्रतिफल मिलता है।12इसलिए ढीले हाथों और निर्बल घुटनों को सीधे करो। (यशा. 35:3)13और अपने पाँवों के लिये सीधे मार्ग बनाओ, कि लँगड़ा भटक न जाए, पर भला चंगा हो जाए। (नीति. 4:26)14सबसे मेल मिलाप रखने, और उस पवित्रता के खोजी हो जिसके बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा*। (1 पत. 3:11, भज. 34:14)15और ध्यान से देखते रहो, ऐसा न हो, कि कोई परमेश्वर के अनुग्रह से वंचित रह जाए, या कोई कड़वी जड़ फूटकर कष्ट दे, और उसके द्वारा बहुत से लोग अशुद्ध हो जाएँ। (2 यूह. 1:8, व्य. 29:18)16ऐसा न हो, कि कोई जन व्यभिचारी, या एसाव के समान अधर्मी हो, जिसने एक बार के भोजन के बदले अपने पहलौठे होने का पद बेच डाला। (कुलु. 3:5, उत्प. 25:31-34)17तुम जानते तो हो, कि बाद को जब उसने आशीष पानी चाही, तो अयोग्य गिना गया, और आँसू बहा बहाकर खोजने पर भी मन फिराव का अवसर उसे न मिला।18तुम तो उस पहाड़ के पास जो छुआ जा सकता था और आग से प्रज्वलित था, और काली घटा, और अंधेरा, और आँधी के पास।19और तुरही की ध्वनि, और बोलनेवाले के ऐसे शब्द के पास नहीं आए, जिसके सुननेवालों ने विनती की, कि अब हम से और बातें न की जाएँ। (निर्ग. 20:18-21, व्य. 5:23,25)20क्योंकि वे उस आज्ञा को न सह सके “यदि कोई पशु भी पहाड़ को छूए, तो पत्थराव किया जाए।” (निर्ग. 19:12-13)21और वह दर्शन ऐसा डरावना था, कि मूसा ने कहा, “मैं बहुत डरता और काँपता हूँ।” (व्य. 9:19)22पर तुम सिय्योन के पहाड़ के पास, और जीविते परमेश्वर के नगर स्वर्गीय यरूशलेम के पास और लाखों स्वर्गदूतों,23और उन पहलौठों की साधारण सभा और कलीसिया जिनके नाम स्वर्ग में लिखे हुए हैं और सब के न्यायी परमेश्वर के पास, और सिद्ध किए हुए धर्मियों की आत्माओं। (भज. 50:6, कुलु. 1:12)24और नई वाचा के मध्यस्थ यीशु, और छिड़काव के उस लहू के पास आए हो, जो हाबिल के लहू से उत्तम बातें कहता है।25सावधान रहो, और उस कहनेवाले से मुँह न फेरो, क्योंकि वे लोग जब पृथ्वी पर के चेतावनी देनेवाले से मुँह मोड़कर न बच सके, तो हम स्वर्ग पर से चेतावनी देनेवाले से मुँह मोड़कर कैसे बच सकेंगे?26उस समय तो उसके शब्द ने पृथ्वी को हिला दिया पर अब उसने यह प्रतिज्ञा की है, “एक बार फिर मैं केवल पृथ्वी को नहीं, वरन् आकाश को भी हिला दूँगा।” (हाग्गै. 2:6, न्याय. 5:4, भज. 68:8)27और यह वाक्य ‘एक बार फिर’ इस बात को प्रगट करता है, कि जो वस्तुएँ हिलाई जाती हैं, वे सृजी हुई वस्तुएँ होने के कारण टल जाएँगी; ताकि जो वस्तुएँ हिलाई नहीं जातीं, वे अटल बनी रहें। (हाग्गै 2:6)28इस कारण हम इस राज्य को पा कर जो हिलने का नहीं*, उस अनुग्रह को हाथ से न जाने दें, जिसके द्वारा हम भक्ति, और भय सहित, परमेश्वर की ऐसी आराधना कर सकते हैं जिससे वह प्रसन्न होता है।29क्योंकि हमारा परमेश्वर भस्म करनेवाली आग हैं। (व्य. 4:24, व्य. 9:3, यशा. 33:14)Chapter 13
ग्रहणयोग्य सेवा
1भाईचारे का प्रेम बना रहे।2अतिथि-सत्कार करना न भूलना, क्योंकि इसके द्वारा कितनों ने अनजाने में स्वर्गदूतों का आदर-सत्कार किया है। (1 पत. 4:9, उत्प. 18:1-19:3)3कैदियों की ऐसी सुधि लो*, कि मानो उनके साथ तुम भी कैद हो; और जिनके साथ बुरा बर्ताव किया जाता है, उनकी भी यह समझकर सुधि लिया करो, कि हमारी भी देह है।4विवाह सब में आदर की बात समझी जाए, और विवाह बिछौना निष्कलंक रहे; क्योंकि परमेश्वर व्यभिचारियों, और परस्त्रीगामियों का न्याय करेगा।5तुम्हारा स्वभाव लोभरहित हो, और जो तुम्हारे पास है, उसी पर संतोष किया करो; क्योंकि उसने आप ही कहा है, “मैं तुझे कभी न छोडूँगा, और न कभी तुझे त्यागूँगा।” (भज. 37:25, व्य. 31:8, यहो. 1:5)6इसलिए हम बेधड़क होकर कहते हैं, “प्रभु, मेरा सहायक है; मैं न डरूँगा; मनुष्य मेरा क्या कर सकता है?” (भज. 118:6, भज. 27:1)7जो तुम्हारे अगुवे थे, और जिन्होंने तुम्हें परमेश्वर का वचन सुनाया है, उन्हें स्मरण रखो; और ध्यान से उनके चाल-चलन का अन्त देखकर उनके विश्वास का अनुकरण करो।8यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक जैसा है। (भज. 90: 2, प्रका. 1:8, यशा. 41:4)9नाना प्रकार के और ऊपरी उपदेशों से न भरमाए जाओ, क्योंकि मन का अनुग्रह से दृढ़ रहना भला है, न कि उन खाने की वस्तुओं से जिनसे काम रखनेवालों को कुछ लाभ न हुआ।10हमारी एक ऐसी वेदी है, जिस पर से खाने का अधिकार उन लोगों को नहीं, जो तम्बू की सेवा करते हैं।11क्योंकि जिन पशुओं का लहू महायाजक पाप-बलि के लिये पवित्रस्थान में ले जाता है, उनकी देह छावनी के बाहर जलाई जाती है।12इसी कारण, यीशु ने भी लोगों को अपने ही लहू के द्वारा पवित्र करने के लिये फाटक के बाहर दुःख उठाया।13इसलिए, आओ उसकी निन्दा अपने ऊपर लिए हुए छावनी के बाहर उसके पास निकल चलें। (लूका 6:22)14क्योंकि यहाँ हमारा कोई स्थिर रहनेवाला नगर नहीं, वरन् हम एक आनेवाले नगर की खोज में हैं।15इसलिए हम उसके द्वारा स्तुतिरूपी बलिदान*, अर्थात् उन होंठों का फल जो उसके नाम का अंगीकार करते हैं, परमेश्वर के लिये सर्वदा चढ़ाया करें। (भज. 50:14, भज. 50:23, होशे 14:2)16पर भलाई करना, और उदारता न भूलो; क्योंकि परमेश्वर ऐसे बलिदानों से प्रसन्न होता है।प्रार्थना का निवेदन
17अपने अगुओं की मानो; और उनके अधीन रहो, क्योंकि वे उनके समान तुम्हारे प्राणों के लिये जागते रहते, जिन्हें लेखा देना पड़ेगा, कि वे यह काम आनन्द से करें, न कि ठंडी साँस ले लेकर, क्योंकि इस दशा में तुम्हें कुछ लाभ नहीं। (1 थिस्स. 5:12-13, प्रेरि. 20:28)18हमारे लिये प्रार्थना करते रहो, क्योंकि हमें भरोसा है, कि हमारा विवेक शुद्ध है; और हम सब बातों में अच्छी चाल चलना चाहते हैं।19प्रार्थना करने के लिये मैं तुम्हें और भी उत्साहित करता हूँ, ताकि मैं शीघ्र तुम्हारे पास फिर आ सकूँ।आशीर्वाद
20अब शान्तिदाता परमेश्वर* जो हमारे प्रभु यीशु को जो भेड़ों का महान रखवाला है सनातन वाचा के लहू के गुण से मरे हुओं में से जिलाकर ले आया, (यूह. 10:11, प्रेरि. 2:24, रोम. 15:33)21तुम्हें हर एक भली बात में सिद्ध करे, जिससे तुम उसकी इच्छा पूरी करो, और जो कुछ उसको भाता है, उसे यीशु मसीह के द्वारा हम में पूरा करे, जिसकी महिमा युगानुयुग होती रहे। आमीन।22हे भाइयों मैं तुम से विनती करता हूँ, कि इन उपदेश की बातों को सह लो; क्योंकि मैंने तुम्हें बहुत संक्षेप में लिखा है।23तुम यह जान लो कि तीमुथियुस हमारा भाई छूट गया है और यदि वह शीघ्र आ गया, तो मैं उसके साथ तुम से भेंट करूँगा।24अपने सब अगुओं और सब पवित्र लोगों को नमस्कार कहो। इतालियावाले तुम्हें नमस्कार कहते हैं।25तुम सब पर अनुग्रह होता रहे। आमीन।